ऐसे थे इब्राहिम अल्क़ाज़ी. जब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के निदेशक थे तो उन्होंने अपने छात्रों को क्लास छोड़ कर चले जाने की आज़ादी दे दी थी. वे कहते थे कि मैंने ये नियम इसलिए बनाए ताकि एनएसडी में शिक्षा का स्तर और बेहतर हो जाए. लोग अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं की दहलीज़ को और आगे धकेलें, हर बार अपने लिए एक नई चुनौती प्रस्तुत करें और अपनी ज़िम्मेदारियों का दायरा बढाएं. रंगमंच की यही खूबी है. वह हर बार अपने को नए तरह से रचता है और हर बार अपने को सामयिक बनाता है. इस तरह थिएटर, भविष्य के लिए राह प्रशस्त करता है.
इब्राहिम अल्क़ाज़ी एक ‘सरोगेट’ वालिद
आधुनिक रंगमंच के पितामह कहे जाने वाले इन्हीं इब्राहिम अल्क़ाज़ी (1925- 2020) का मंगलवार को निधन हो गया. वे 94 वर्ष के थे. अल्क़ाज़ी के पिता सऊदी अरब के थे और माता कुवैत की. उनका परिवार पुणे में आ कर बस गया था. आजादी के बाद हुए विभाजन में उनका परिवार पाकिस्तान चला गया लेकिन अल्क़ाज़ी ने हिंदुस्तान में ही रुकने का फैसला किया. वे 15 साल तक (1962-1977) एनएसडी में बतौर निदेशक रहे. तुगलक, आषाढ़ का एक दिन और अंधा युग उनके चर्चित नाटक हैं. उनके नाम उपलब्धियों, सम्मान और पुरस्कारों का बड़ा ज़खीरा है. उन्हें 1966 में पद्मश्री, 1991 में पद्मभूषण, 2010 में पद्मविभूषण से नवाज़ा गया. इसके अलावा संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया. आज रंगमंच और फिल्म के कई नायाब हीरे अपनी चमक का श्रेय किसी जौहरी को नहीं, बल्कि इब्राहिम अल्क़ाज़ी नाम की इस खदान को देते हैं, जिन्होंने उन्हें ढूंढा, पहचाना और तराशा. इनमें विजय मेहता, मनोहर सिंह, उत्तरा बावकर, रोहिणी हट्टंगडी, नसीरुद्दीन शाह, रतन थियम, ब.व. कारंत, ओमपुरी, पंकज कपूर, अनुपम खेर जैसे कई दिग्गज नाम शामिल हैं.
94 वर्ष के इब्राहिम अल्क़ाज़ी का मंगलवार को निधन हो गया.
जानेमाने फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी नसीरुद्दीन शाह ने एक बार अल्क़ाज़ी के बारे कहा था,‘अल्क़ाज़ी साहब हमारे लिए एक ‘सरोगेट’ वालिद हुआ करते थे. हम उनको ‘चचा’ कहते थे, जिसका इल्म उन्हें भी था. उस वक़्त रविन्द्र भवन में ड्रामा स्कूल (एनएसडी) था, कॉरिडोर में पहला दरवाज़ा अल्क़ाज़ी साहब का था, जिसमें छोटी सी खिड़की थी. स्टूडेंट, जितनी बार उस कॉरिडोर से गुजरते थे, उस खिड़की में से झांक के ज़रूर देखते थे कि ‘चचा’ कर क्या रहे हैं. यहां तक कि जब चचा नहीं भी होते थे तब भी मैंने अपने आप को झांकते पाया उस खिड़की से. हम सब उनसे इतने ऑब्ससेस्ड (आसक्त) थे.
आधुनिक रंगमंच-प्रशिक्षण के वास्तुशिल्पी स्टूडेंट का उनके प्रति प्रेम की एक वजह ये भी रही होगी कि वे एक बेहतरीन टीचर थे. आज एनएसडी जिस तरह एक अंतरराष्ट्रीय संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित है, उसका सबसे बड़ा श्रेय इब्राहिम अल्क़ाज़ी को जाता है. उन्होंने एनएसडी को एक व्यवस्थित बनावट और ढांचागत सरंचना दी. उन्होंने पहली बार एनएसडी के लिए पाठ्यक्रम बनाया और आधुनिक रंगमंच-प्रशिक्षण की व्यवहारिक शिक्षा को धरातल पर उतारा. ये कहना गलत नहीं होगा कि इब्राहिम अल्क़ाज़ी ने एनएसडी के बीज को बोया, सींचा और उसे फलदायक भी बनाया. इसलिए नसीर जैसे उनके विद्यार्थी कहते हैं, ‘हमें सख्त चिढ़ होती थी उनसे कि वे सुबह सुबह हॉस्टल में आकर हमें बिस्तर से खदेड़ते थे. चिढ़ इसलिए होती थी कि वो खुद एक मिसाल थे, जहां तक पहुंचना हमको नामुमकिन लगता. सख्त चिढ़ इसलिए होती कि हमें अपने पोटेंशियल तक पहुंचाने के लिए वो उकसाते रहते थे. हमारी मदद करते रहते थे कभी लात मार के, कभी पुचकार के, कभी मोहब्बत से तो कभी सख्ती के साथ.’
एनएसडी प्रवास के कई दिलचस्प किस्से
एनएसडी प्रवास के दौरान उनके कई दिलचस्प किस्से हैं. जिन्हें सुनकर ऊपरी तौर पर हैरान हुआ जा सकता है, लेकिन अगर आप उनका विश्लेषण करें तो कई बारीक और गहन विचार नज़र आयेंगे, जो ये निष्कर्ष देंगे कि इब्राहिम अल्क़ाज़ी सही मायने में ‘विज़नरी’ थे. एनएसडी निदेशक के रूप में अपने शुरुआती दिनों में वे संस्थान के टॉयलेट खुद साफ़ करते थे. रविन्द्र भवन के बाहर जब एनएसडी का पहला ओपन-एयर थिएटर उनकी निगरानी में बन रहा था, वे अपने सिर पर मिट्टी ढोकर ले जाते थे. उनका मानना था कि थिएटर हमारी जड़ों को अपनी ज़मीन से जुड़े रहने की सीख देता है. अगर आप ऐसे काम नहीं कर सकते तो आप थिएटर नहीं कर पाएंगे.
हम सड़क के बीच दौड़ते थे, उन्होंने पगडंंडी पर चलना सिखाया
इब्राहिम अल्क़ाज़ी के अनुसार रंगमंच एक सख्त अनुशासन की मांग करता है. ये रंगमंचीय अनुशासन उनकी ट्रेनिंग का अहम हिस्सा थी. विख्यात रंग निर्देशक बंसी कौल अल्क़ाज़ी को नियमबद्ध शिक्षक के रूप में देखते थे. वे कहते हैं, ‘उनके पढ़ाने में एक तरह की मेथेडोलॉजी और डिसिप्लिन था. वो खूब तैयारी के साथ लेक्चर देने आते थे, जैसे एक एक्टर ‘प्ले रीडिंग’ कर रहा हो. हम लोग जिस तरह के डिसिप्लिन से आते थे वहां फ्रीडम ज्यादा थी. इसलिए हम लोग बहुत आर्गनाइज्ड नहीं थे जैसे कि छोटी जगहों से आने वाले लोग अक्सर होते हैं. हम पगडंडी में नहीं चलते, बल्कि सड़क के बीचोंबीच दौड़ते हैं. इब्राहिम अल्क़ाज़ी हमें बताते थे कि पगडंडी पर चलो. वरना उस वक़्त थिएटर में कहते थे बोहेमियन बन कर रहो, कुछ भी पहन लो. आर्टिस्ट एक संजीदा व्यक्ति की तरह नहीं हो सकता है. ये समझ उन्होंने दी कि आर्टिस्ट संजीदा दिख सकता है. ये डिसिप्लिन थिएटर में एक समय पर ज़रूरी भी होता है खासकर जब आप स्टूडेंट हों. इसी तरह उनके डिजाइन का जो उनका ‘सेंस’ था वो बहुत ‘नीट’ और ‘क्लीन’ था. उनके डिजाइन में लचीलापन कम था मगर ‘टू-द-पॉइंट’ था .
पुराने किले में खेला गया अंधा युग
ये अल्क़ाज़ी का कड़ा अनुशासन ही था कि किसी नाटक के लिए उसके अनुरूप ही स्टेज का चयन करते थे. उन्होंने एनएसडी के दिनों में स्टूडियो थिएटर बनाने के लिए ‘इंटिमेट’ स्पेस का निर्माण किया, क्योंकि इंटिमेट थिएटर सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने का सबसे उपयुक्त जरिया है. जहां दर्शक बेहद करीब से नाटक को देख सकता है, वैसे ही जैसे वे अपने घर के ड्राइंग रूम में बैठकर इन पात्रों को देख रहे हों. इस तरह वे किरदारों के दुखों, द्वंद्वों और खुशियों के सबसे करीबी गवाह बन जाते हैं. इसके विपरीत जब उन्हें अंधा युग जैसे ऐतिहासिक नाटक का मंचन करना था तब उन्होंने फ़िरोज़ शाह कोटला और बाद में पुराने किले को रंगभूमि के लिए चुना. उंनका ये नाटक आज भी लोगों के ज़ेहन में बसा हुआ है.
वो नाटक जिसके लिए नहीं किया नेहरू का इंतज़ार
अंधा युग को लेकर एक दिलचस्प किस्सा ये भी है कि इस नाटक को देखने की इच्छा उस वक़्त पंडित नेहरू ने भी जताई. लेकिन नेहरू समय पर नहीं पहुंच पाएं. अल्क़ाज़ी ने नेहरू के आने का इंतज़ार नहीं किया और ठीक समय पर नाटक शुरू कर दिया. कुछ देर बाद जब नेहरू पहुंचे तो अल्क़ाज़ी से अनुरोध किया गया कि वो नाटक फिर से शुरू करें. उन्होंने साफ़ कह दिया कि अगर दर्शक अनुमति देंगे तभी वो नाटक फिर से शुरू करेंगे. अल्क़ाज़ी ने मंच पर आकर पहले दर्शकों से इज़ाज़त ली, उनकी रज़ामंदी के बाद ही नाटक प्रारंभ से मंचित किया गया.
मेरी पीढ़ी के लोगों को अल्क़ाज़ी साहब के नाट्य-संसार देखने का सौभाग्य नहीं मिला, पर अपने वरिष्ठों की बातों और यादों में उन्हें सुना है, उनकी आंखों में उन्हें देखा है और उनके अनुभवों में उन्हें महसूस किया है. वे एक प्रकाश स्तंभ थे, जो आने वाली पीढ़ियों को रोशन करते रहेंगे. वे रंगमंच के फ़लक के बड़े सितारे थे. जानेमाने अभिनेता अनुपम खेर उन्हें याद करते हुए कहते हैं, ‘अल्क़ाज़ी कहा करते थे आपका जितना बड़ा दिमाग होगा, आपकी उतनी ही बड़ी दुनिया होगी और आपका जितना गहरा दिल होगा, उतनी ही गहरी आपकी मानवता होगी.’ (डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं)
मोहन जोशी रंगकर्मी, नाट्यकार
फ्रीलांस लेखक, माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय भोपाल से जनसंचार स्नातक. एफटीआईआई पुणे से फिल्म रसास्वाद व पटकथा लेखन कोर्स. रंगकर्मी, नाट्यकार और इसके अलावा कई डाक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए लेखन व निर्देशन.
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