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लघुकथा 'रस परिवर्तन' बयां करती है सास के जज्बात, 'कोशिश' ने बताएं लड़कियों के विचार और 'ख्वाहिशें' से जानें कामकाजी महिला के दिल की…

संजयग्राम by संजयग्राम
19/08/2020
in समाचार
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  • Short Story ‘Ras Parivartan’ Tells The Spirit Of Mother in law, ‘koshish’ Told The Thoughts Of Girls And Learn About The Working Woman’s Heart With ‘khwahishein’

14 मिनट पहले

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लघुकथा…रस परिवर्तन

लेखक : चरनजीत सिंह कुकरेजा

बहू, आजकल तेल बहुत डालने लगी हो तुम सब्ज़ी में…चपातियां भी घी से तर हैं… तुम्हें कितनी बार कहा है ख़्याल रखा करो हम दोनों की सेहत का। डायनिंग टेबल पर भोजन ग्रहण करते हुए रजनी की मां में सास की आत्मा ने आज फिर प्रवेश कर लिया था।

‘लगता है आज रसोई में ध्यान नहीं था तुम्हारा।’ पहला निवाला मुंह में रखते हुए उनका कोसना बदस्तूर जारी था। ‘लो देखो नमक भी ज़्यादा है आज सब्ज़ी में… सुबह की चाय भी इतनी मीठी जैसे डब्बा उड़ेल दिया हो चीनी का। हमें क्या जल्दी विदा करने का इरादा है…?’

‘क्यों जी… तुम भी तो कुछ बोलो… हमेशा मैं ही बुरी बनती हूं।’ पत्नी के उलाहने पर भी मैं चुप्पी साधे हुए भोजन का स्वाद लेने में मशगूल रहा, क्योंकि मेरा मानना है कि भोजन को हमेशा ईश्वर का प्रसाद समझते हुए उसका शुक्रिया अदा करके बड़े सुकून के साथ ग्रहण करना चाहिए।

हम ख़ुशनसीब हैं जो हमें घर बैठे नित विभिन्न स्वाद चखने को मिलते हैं, वरना तो दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्हें दो निवालों के लिए भी कड़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है। और कई को रात फाकों में ही गुज़ारनी पड़ती है। और फिर जब इतने सालों से अपनी पत्नी द्वारा परोसे जाने वाले व्यंजनों में मैंने कभी नुक्स नहीं निकाला तो हाल-फिलहाल घर में आई बहू द्वारा पकाए भोजन में मीन-मेख निकाल कर उसका निरादर कैसे करता।

मैं बस इतना ही कह सका, ‘शांति से भोजन का रसास्वादन करो भागवान… सीख जाएगी धीरे-धीरे… सबके स्वाद मुताबिक़ खाना बनाना।’

मेरी ओर मुंह बना कर देखते हुए वह फिर बोल उठी, ‘क्या खाक सीखेगी। कुछ सीखा हो तब न। तुम्हें तो पैरवी करने के सिवा कुछ आता ही नहीं। मेरी तरफ़ से तो कभी बोलोगे ही नहीं। भर गया मेरा पेट, तुम्हीं खाओ…।’

इतना कहते ही वह थाली आगे सरकाते हुए उठने को हुई ही थी कि सामने बैठी रजनी बोल पड़ी, ‘मम्मी, आप तो नाहक ही भाभी को डपट रही हैं।

अपने संस्कारों की वजह से वह आपकी हर नुक़्ताचीनी पर ख़ामोश रहती हैं। कभी आगे बढ़ कर आपको जवाब नहीं दिया उन्होंने। और वैसे भी आज सुबह से मैंने ही सारे किचन की जवाबदारी लेकर भाभी को दो दिनों के लिए आराम करने को कहा था।

दो-चार दिनों के लिए ही तो आने को मिलता है मुझे मायके। भाभी के मना करने के बावजूद ज़िद करके मैंने ही खाना बनाया है।

सुबह की चाय भी मैंने ही बनाई थी। यह तो उनका बड़प्पन है जो वह चुप रह कर मेरे हिस्से के ताने सुन रही हैं… लगता है मेरे जाने के बाद आपका टेस्ट बदल गया है।

मुझे बता दीजिएगा आपको कैसा खाना पसंद है। वहां ससुराल में ननद जी किचन में कुछ करने ही नहीं देती। कहो तो कहती है… भाभी आप तो अभी आराम कीजिए। एन्जॉय कीजिए नए घर को… उतरने दीजिए हाथों की मेहंदी को आहिस्ता-आहिस्ता। बाद में तो फिर खटना ही रसोई और घर-बाहर के कामों में…। सो यहां आकर सोचा यहीं थोड़ा हाथ साफ़ कर लूंगी।

“ऐसे में मेरी प्यारी भाभी को आराम भी मिल जाएगा और आप लोगों की सेवा भी कर पाऊंगी पहले की तरह। पर आपने तो मेरा सारा ज़ायका ही बिगाड़ दिया…।’

उन ननद-भौजाई से आंखें दो-चार करते, मंद-मंद मुस्कराते हुए आखिर मुझे बोलना ही पड़ा, ‘अब बस भी करो रजनी…।’ और इसी के साथ कनखियों से उसकी तरफ़ देखा, वह उठते-उठते फिर बैठ गई थी। और बड़े इत्मीनान के साथ बेटी के हाथ के बने भोजन का वास्तविक आनंद लेने में मगन हो गई।

थोड़ी देर पहले के बिगड़े ज़ायके का पूरी तरह ‘रस परिवर्तन’ हो चुका था। और घर में रिश्तों में भी मिठास घुल रही थी।

लघुकथा : कोशिश

लेखक : अजय सिंह राठौड़

नित्य की भांति मैं अपनी छत पर टहल रहा था। पड़ोसी की छत पर उनकी आठ और पांच वर्ष की बेटियां खेल रही थीं। चारों ओर पतंगें ही पतंगें उड़ रही थीं।

ऐसे में एक पतंग कट कर जहां वे बच्चियां खेल रही थीं उस छत पर से गुज़रते हुए समीप के पेड़ पर अटक गई। वे दोनों खेलने में व्यस्त थीं इसलिए उनका ध्यान मैंने आकर्षित किया और डोर जो लगभग उनकी छत पर ही थी, उसे पकड़कर खींचने को कहा।

वे दोनों डोर को खींचने लगीं। धीरे-धीरे पतंग भी उनके हाथ लग गई। वे मुझे देखकर ख़ुशी से चहकने लगीं। पतंग को इस तरह प्रयास कर हासिल कर लेने की दमक, उत्साह, उमंग को उनके चेहरों पर आसानी से पढ़ा जा सकता था।

चूंकि दोनों को पतंग उड़ाना तो आता नहीं था तो उनकी बाल-क्रीड़ाएं देखकर मैं मुस्कराता रहा। जब काफ़ी प्रयास के बाद भी वे सफल नहीं हुईं तो मैंने कहा- ‘बेटा, पापा को आ जाने दो, वे तुम्हें सिखा देंगे।’

मेरा इतना कहना था कि वो छोटी वाली तुरंत बोल पड़ी- ‘अरे अंकल, कोशिश तो कर लेने दीजिए।’

मैं हतप्रभ, चकित रह गया। मैं भूल गया था कि मैं आज के युग की एक बेटी से बात कर रहा हूं,जो परिस्थितियों से जूझना जानती है, चाहती है। उस छोटी-सी बच्ची की ‘कोशिश’ की ललक नए युग में स्वावलंबन की शुरुआत जैसी लगी।

लघुकथा : ख़्वाहिशें

लेखिका : अंजलि यादव

आज घर में सभी बहुत खुश थे। ख़ुशी का कारण मैं थी तो मेरा भी ख़ुश होना लाज़मी था, लेकिन फिर क्यों…? हमेशा की तरह सभी तारीफ़ भी कर रहे थे कि मैंने बहुत संघर्ष के बाद ये नौकरी पाई है।

वो नौकरी जिसे पाने की इच्छा बहुतों ने की होगी लेकिन मेहनत मेरी रंग लाई। मैंने ट्रेनों में बहुत सफ़र किया, आधी-आधी रात तक जागकर एक शहर से दूसरे शहर जाना, रोज़-रोज़ आने वाली सारी समस्याओं को अकेले ही हल किया मैंने।

अब नौकरी मिल गई है तो मुझे भी ख़ुश होना चाहिए कि अब सुकून से रहने को मिलेगा, अब अपने मन के घर, गाड़ी, कपड़े और सभी चीज़ें सिर्फ मेरे लिए ही नहीं बल्कि सभी के लिए आसान होंगी।

पर मैं तो एक कोने में बैठकर आसमान की ओर देखकर यही सोच रही रही थी कि मेरे दिल में सुकून क्यों नहीं है?

शायद जब मैं रातों में ट्रेनों में सफ़र करके कोई पेपर देने जाती थी तब मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं थी। क्या लालच था मेरा उस वक़्त जब मैं रातों में जाग-जाग कर पढ़ती थी?

मेरे दिल में ख़ुुशी न होने का कारण शायद यह है कि मैंने काफ़ी संघर्ष किया जबकि मेरी अपनी कोई ख़्वाहिश ही नहीं थी, बस जो भी सामने आया करती गई।

अब जब बहुत कुछ अच्छा सामने आने वाला है तो भी मैं ख़ुश नहीं हूं क्योंकि जो मुझे मिल रहा है वो मैंने कभी किसी चाह से नहीं किया था।

बस एक ज़िम्मेेदारी समझ कर किया। अब एक प्रश्न है कि आगे जो भी संघर्ष करूं उसमेंं कोई ख़्वाहिश तलाशूं या जो मेरी ख़्वाहिश है उसी के लिए संघर्ष करूं?

एक बात तो समझ में आई कि मन में किसी न किसी ख़्वाहिश का होना बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि बिना किसी इच्छा और चाह के सिर्फ ज़िम्मेदारी के नाम पर किया गया संघर्ष आपको केवल सफलता दे सकता है, ख़ुशी नहीं।

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