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राहत साहब हिंदुस्तानी होने पर ताउम्र फ़िदा रहे और ग़ज़ब के फ़िदा रहे, वे हिन्दी-उर्दू साहित्य के बीच के सबसे मज़बूत पुल थे

संजयग्राम by संजयग्राम
11/08/2020
in समाचार
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  • Hindi News
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  • Rahat Sahab, Being A Hindustani, Relished And Lived Well, He Was The Strongest Bridge Between Hindi Urdu Literature.

42 मिनट पहलेलेखक: कुमार विश्वास

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डॉ. राहत इंदौरी के साथ डॉ. कुमार विश्वास। -फाइल फोटो

मशहूर शायर राहत इंदौरी नहीं रहे। कार्डिएक अरेस्ट की वजह से उनका मंगलवार को इंदौर में निधन हो गया। उन्हें निमोनिया और कोरोना भी था। जाने-माने कवि कुमार विश्वास ने राहत इंदौरी साहब को कुछ यूं याद किया….

‘राहत इंदौरी जी का जाना एक कलंदर का जाना है। सैकड़ों यात्राओं, मंच और नेपथ्य के साथ में मैंने उनमें एक बेख़ौफ़ फ़कीर देखा था, उस परम्परा का, जो कबीर से चल कर बाबा नागार्जुन तक पहुंचती है। राहत भाई हिन्दी-उर्दू साहित्य के बीच के सबसे मज़बूत पुल थे। मेरी याददाश्त में मैंने किसी शायर को मक़बूलियत के इस उरूज़ पर नहीं देखा था, जितना उन्हें। उनके अंदर की हिन्दुस्तानियत का ये जादू था कि हिन्दी कवि-सम्मेलनों में भी उन्हें वही मुकाम हासिल था, जो उर्दू मुशायरों में था।

राहत भाई मुंहफट होने, इन्दौरी होने, शायर होने और इन सबसे बढ़कर हिंदुस्तानी होने पर ताउम्र फ़िदा रहे, और ग़ज़ब के फ़िदा रहे। पिछले बीस सालों में शायद ही उनके किसी हमसफ़र को उनके सफ़र का इतना साथ मिला हो, जितना मुझे। दुनियाभर की यात्राओं में जिस नज़ाक़त भरे लेकिन मज़बूत तरीक़े से वे हिन्दुस्तानियत को थाम कर चलते थे, उनकी शायरी में, अदायगी में और चेहरे पर इसकी हनक देखते ही बनती थी। कई मुल्कों के खचाखच भरे ऑडिटोरियम की कश्मकश भरी वे रातें मेरी आंखों को मुंहज़बानी याद हैं, जहां अपने जुमलों और शेरों में महकती हिन्दुस्तानियत की खुशबू पर आपत्ति उठाने वाले लोगों से राहत भाई अपने तेवर, फिलवदी जुमलों और क़हक़हों के हथियार लेकर एकदम भिड़ जाते थे।

बहरीन की एक महफ़िल में, जहां हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों के श्रोता लगभग बराबर संख्या में मौजूद थे, वहां खूब देर तक तालियों के शोर के बीच सुने जा रहे राहत भाई ने जब अपनी एक ग़ज़ल का मतला पढ़ा कि “मैं जब मर जाऊँ तो मेरी अलग पहचान लिख देना// लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना”, तो महफ़िल के एक ख़ास हिस्से से एक चुभता हुआ सा जुमला उठा – “राहत भाई, कम से कम ग़ज़ल को तो मुल्क के रिश्ते से बाहर रखिये।”

जुमले के समर्थन में छिटपुट तालियों और विरोध में जनता के फिकरे और ज़्यादा तालियों के शोर के बीच परिस्थिति की कमान को अपने हाथ में लेने की कोशिश करते मुझे ख़ामोश होने का इशारा किया और अपने मशहूर अंदाज़ में माइक को थाम कर कहा कि ‘हिंदुस्तान के एक अलग हुए टुकड़े के बिछड़े हुए भाई, ज़रा ये शेर भी सुनो- “ए ज़मीं, इक रोज़ तेरी ख़ाक में खो जायेंगे, सो जायेंगे// मर के भी, रिश्ता नहीं टूटेगा हिंदुस्तान से, ईमान से”।

असली खिलाड़ी वो नहीं होता जिसे खेलना आता है, बल्कि वो होता है, जिसे मैदान की समझ होती है। उन्हें पता होता था कि किस महफ़िल में कौन से अशआर पढ़ने हैं। जब कभी भी वो आईआईटी या किसी और कॉलेज में होते, तो शरारती अशआर के अलावा आपसी प्रेम और यकज़हती फैलाने वाले शेर जैसे “फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का ब्योपार करो// इश्क़ खता है, तो ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो” जैसे शेर ज़रूर सुना जाते थे।

आज, जब उनकी बेबाकी और कहन की बेलौसी का चर्चा है और लोग इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि ख़ामोशी के इस दौर में बेहिचक कह देने वाले ऐसे शायर की सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी, तब शायद ही किसी का ध्यान इस तरफ़ गया हो कि पिछले पचास सालों से उर्दू-हिन्दी मंचों के सबसे बड़े सितारे को किसी सरकार ने पद्मश्री तक के लायक नहीं समझा। उनकी शायरी के और उनके मुझ जैसे प्रशंसक के लिए व्यवस्था की उपेक्षा का दंश उस वक़्त ज़्यादा टीस उठता है, जब उनके अस्पताल जाने से ले कर उनके अंतिम सांस लेने तक करोड़ों लोग उनके लिए शिफ़ा की दुआ करते दिखते हैं, और करोड़ों लोग मग़फ़िरत की दुआ मांगते दिखते हैं।

हालांकि, राहत भाई को इन सब बातों की चिंता कभी रही ही नहीं। मेरी आंखों के आगे तैर जाता है इंदौर के खचाखच भरे अभय प्रशाल का वो ऐतिहासिक इंटरनेशनल मुशायरा, जहां कई देशों के बड़े कवि और शायर आए हुए थे। उसमें स्व. गोपाल दास नीरज जी से ले कर स्व. निदा फ़ाज़ली साहब तक उपस्थित थे। उस मुशायरे में पाकिस्तान से उर्दू की बहुत बड़ी शायरा रेहाना रूही भी आई थीं। अपने कलाम को शुरू करने से पहले उन्होंने कहा कि “जब मेरा जहाज़ इंदौर के ऊपर पहुंचा और लैंडिंग से पहले उसने शहर का एक चक्कर काटा तो एक शेर कहीं से मेरे ज़हन में अचानक उतर आया कि “जहाँ में धूम है, हल्ला है अपने राहत का// यहीं कहीं पे मोहल्ला है अपने राहत का”।

उनके बारे में मैं मंच से हमेशा कहता था कि असली शायर वो, जो अपने नाम से पहले अपने शेर से पहचान लिया जाए। राहत जी एक खुदरंग शायर हैं, उनका अपना ही एक अनोखा रंग है। हालांकि, इस बेहद संजीदा और सच्चे जुमले पर भी वे माइक से मुझे छेड़ते हुए कह देते थे कि “डॉक्टर, अगर तू ये मेरे चेहरे के रंग को देख कर कह रहा है तो ये तेरी बदमाशी है, और अगर मेरी शायरी के लिए कह रहा है तो ‘सुब्हान अल्लाह!'”

राहत भाई के शेरों में इंसान होने की हनक बहुत होती थी। कई बार तो वो हनक शरीफ़ लफ़्ज़ों की आख़िरी हद को छूकर निकल जाती थी। एक बार एक लम्बी हवाई यात्रा में ऐसे ही कुछ शेरों पर बहस, मुसाहिबा और तफ्सरा करते हुए मैंने राहत भाई को छेड़ा कि राहत भाई, आपके कुछ शेरों में तो ऐसा लगता है कि जहां मिसरा ख़त्म हुआ है, उसके बाद शायद कोई गाली थी, जिसे आपने ‘साइलेंट’ कर दिया है। उसके बाद तो राहत भाई की आदत में ये शुमार हो गया कि वे दुनिया के किसी भी डायस पर जब कोई हिन्दुस्तानियत की हनक वाला शेर पढ़ते, तो अक्सर तालियों के बीच निज़ामत कर रहे मेरी तरफ़ देख कर आंख मारकर कहते “डाक्टर, इसमें ‘साइलेंट’ है!” बहरहाल, जनता तो समझ नहीं पाती, लेकिन हम दोनों ज़ोरदार ठहाका लगाते।

राहत भाई ने श्रोताओं और हम जैसे चाहने वालों के दिलों पर राज किया है। उस बेलौस फ़कीर राहत इंदौरी का शरीर भले ही अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन राहत इंदौरी नहीं मर सकता। उनके ही लफ़्ज़ों में “वो मुझको मुर्दा समझ रहा है// उसे कहो मैं मरा नहीं हूं”

राहत साहब से जुड़ी ये खबरें भी आप पढ़ सकते हैं…

1. जब राहत इंदौरी ने भास्कर से कहा था:मैंने अब तक वो शेर नहीं लिखा, जो 100 साल बाद भी मुझे ज़िंदा रखे

2. 1993 में पहली बार ‘सर’ में सुनाई दिया था राहत इंदौरी का लिखा गाना, आखिरी बार 2017 में बेगम जान के लिए लिखा था

3. कुमार विश्वास ने लिखा- काव्य-जीवन के ठहाकेदार किस्सों का एक बेहद जिंदादिल हमसफर हाथ छुड़ा कर चला गया

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